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2024 चुनाव- मायावती के सामने बीएसपी को बचाने की चुनौती

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2024 चुनाव- मायावती के सामने बीएसपी को बचाने की चुनौती

Posted by Admin | 1 January, 2024

देश में लोकसभा चुनाव की आहट हो चुकी है, लेकिन कभी देश की बड़ी पार्टी रही बीएसपी की तैयारियां अधूरी लगती हैं। बीएसपी सुप्रीमो मायावती पर जैसे जैसे उम्र हावी होती जा रही है, वैसे वैसे पार्टी के भविष्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं। हाल ये है कि मायावती न इंडिया गठबंधन में शामिल हैं और न ही बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए में। दोनों गठबंधनों से दूरी बनाकर रखने का नतीजा क्या होगा, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि पार्टी को यूपी की 80 लोकसभा सीटों के लिए बड़े चेहरे ही नहीं मिल रहे। ऐसे में सवाल उठता है कि कांशीराम के दलित आंदोलन से उपजी बीएसपी के मुकाबले युवा ऊर्जा से भरे भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद आगे बढ़ जाएंगे? बीएसपी सुप्रीमो मायावती की कभी यूपी में तूती बोला करती थी। यूपी के 22 फीसदी वोटों के दम पर बीएसपी ने सभी राजनीतिक दलों को अपना समर्थन करने को मजबूर किया और इसी दम पर चार बार यूपी की सीएम बनीं। 2019 में एसपी से गठबंधन के कारण उनके दस सांसद जीतकर भी आए, लेकिन 2024 से पहले हाल ये है कि उनको किसी गठबंधन ने अपने साथ नहीं लिया, इसके कारण पहचान रखने वाले बड़े नेता बीएसपी के टिकट से मैदान में उतरने से बचना चाह रहे हैं। मायावती के पास केवल चुनाव हारे पूर्व विधायकों को मैदान में उतारने का विकल्प बन रहा है। लगातार सत्ता से बाहर रहने के कारण पार्टी के पास फंड की भी कमी हो गई है। बड़े नेताओं को लग रहा है कि बिना गठबंधन के बीएसपी का हाल 2014 जैसा होगा। उस साल बसपा सभी 80 लोक सभा सीटों पर अकेले चुनाव लड़ी, लेकिन एक भी जीत नहीं पाई। हालांकि उसका वोट परसेंटेज 19.60% था, लेकिन रणनीति की कमी ने सफाया करवा दिया। अगर मायावती की जिद नहीं टूटी तो यही हाल 2024 में भी रहेगा। यही कारण है कि यूपी में अखिलेश यादव अब भीम आर्मी के मुखिया चंद्रशेखर आजा़द को आगे बढ़ा रहे हैं। आज़ाद ने साफ कहना शुरू कर दिया है कि दलितों की लड़ाई अब मायावती जी नहीं लड़ पाएंगी, क्योंकि उनकी उम्र हो गई है और उनके भतीजे आकाश आनन्द को संघर्ष का कोई तजुर्बा नहीं है। इसलिए दलितों के असली नेता हम हैं।

कांशीराम ने मायावती को सौंपी विरासत

दलित राजनीति को नया आयाम देने वाले कांशी राम से मायावती को बहुजन समाज पार्टी विरासत में मिली. 1990 के दशक और इस सदी के पहले दशक में मायावती की राजनीति उफान पर थी. 1990 का दशक और इस सदी का पहला दशक या’नी दो दशक उत्तर प्रदेश का राजनीतिक सिरा मायावती के प्रभाव और प्रभुत्व से जुड़ा रहा है.
इन दो दशकों में प्रदेश के सियासी समीकरणों को साधकर मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री बनने में सफल रहीं. सबसे पहले मायावती जून 1995 से अक्टूबर 1995 तक मुख्यमंत्री रहीं. दूसरा बार में वे मार्च 1997 से सितंबर 1997 में मुख्यमंत्री बनी. मायावती तीसरी बार मई 2002 से अगस्त 2003 तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. मायावती को बतौर मुख्यमंत्री पांच साल का कार्यकाल पूरा करने का मौक़ा चौथी बार में मिला. मायावती मई 2007 से मार्च 2012 तक उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं. हालांकि पिछले 10 साल में गिरती रही बीएसपी.
राजनीतिक नज़रिये से पिछला एक दशक मायावती और उनकी पार्टी के लिए बेहद ही ख़राब रहा है. अभी भी उत्तर प्रदेश में बीएसपी के कोर वोट बैंक की वजह से जनाधार बना हुआ है लेकिन उसके बावजूद पिछले दस साल में मायावती की राजनीति तेज़ी से नीचे की ओर आ रही है. कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मायावती मार्च 2012 से हाशिये पर हैं.
हालांकि पार्टी को फिर से पुरानी राजनीतिक हैसियत दिलाने के लिए मायावती कुछ महीनों से हाथ-पैर मार रही हैं, उनकी राजनीतिक सक्रियता हाल-फिलहाल के दिनों में बढ़ी भी है. बताते हैं कि 2024 में मायावती अपने पूर्व सांसदों और पूर्व विधायकों को ही उत्तर प्रदेश की 80 सीटों पर उतारने का मन बना रही हैं. इस दांव के ज़रिये मायावती उत्तर प्रदेश में जातीय समीकरणों को एक बार फिर से साधना चाहती हैं. लेकिन पहले जैसे विपक्ष का हर बड़ा चेहरा बीएसपी के टिकट के लिए मायावती के दरवाजे पर खड़ा रहता था, अब ऐसा नहीं दिखता । 2024 से पहले इंडिया एलाएंस हो या बीजेपी का एनडीए, किसी ने भी मायावती को अपने साथ नहीं रखा है। मायावती का कहना है कि वे दोनों ही गठबंधनों से समान दूरी बनाकर चल रही हैं।
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने 2024 के पहले दिन विरोधी दलों पर हमला बोला। उन्होंने ट्वीट करके कहा कि गरीबों की कोई सुनने वाला नहीं है. लोगों के पास आम जरूरतों के लिए पैसे नहीं है और केन्द्र सरकार बड़े विकास का ढिढोरा पीट रही है।
केंद्र की सरकार हो या राज्य की सरकारें, दोनों महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी और पिछड़ापन जैसी बुनियादी समस्याओं पर ध्यान केंद्रित नहीं कर रही हैं। लोगों का ध्यान बांटने के लिए गारंटी वितरण में ही लगी हैं, जो समाधान कम और छलावा ज्यादा है।
एक तरफ जहां लोक सभा चुनाव देखते हुए सत्ताधारी दल बीजेपी…एनडीए के कुनबे को मज़बूत बनाने में जुटी है. दूसरी तरफ़, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, डीएमके, आरजेडी, जेडीयू समेत कई विपक्षी दल ‘इंडिया’ गठबंधन का हिस्सा बन 2024 के समीकरणों को साधने के लिए रणनीति बनाने में जुटे हैं.
इस बीच मायावती की राजनीति का सुर कुछ अलग ही है. मायावती न तो एनडीए का हिस्सा बनेंगी और न ही विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का. मायावती पहले ही एलान कर चुकी हैं कि आम चुनाव, 2024 में उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश में लोक सभा की सभी 80 सीट पर अकेले चुनाव लड़ेगी. मायावती की तरह ही नवीन पटनायक की बीजू जनता दल (BJD)ओडिशा में, के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (BRS)तेलंगाना में और जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में न तो सत्ताधारी गठबंधन एनडीए का हिस्सा रहेंगी और न ही विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ का.

तीसरे मोर्चे में रहेंगी मायावती?

हालांकि मायावती और इन तीनों नेताओं की मौजूदा सियासी हैसियत में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है. नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव और जगन मोहन रेड्डी अपने-अपने राज्यों में राजनीतिक तौर से बेहद मज़बूत स्थिति में हैं. वे अपनी ताक़त से अपने-अपने राज्यों में किसी और दल का फ़ाइदा नहीं होने देना चाहते हैं, इसलिए किसी गुट का हिस्सा नहीं बनने का फ़ैसला किया है.
इसके उलट मायावती की मौजूदा हैसियत अपने सबसे निचले स्तर पर है. पिछले दो लोक सभा चुनाव और दो विधान सभा चुनाव के आँकड़ें गवाही देते हैं कि उत्तर प्रदेश में बसपा अपने दम पर कोई दमख़म नही रखती है. उसके बावजूद मायावती का किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनना या बनने की कोशिश नहीं करना थोड़ा चौंकाने वाला ज़रूर है. हालांकि बताते हैं कि मायावती का कोर वोटर दिल से उनका समर्थन करता है, लेकिन उसको पता है कि मायावती का सपोर्ट करके वोट की बर्बादी हो जाती है, इसलिए अब वो कहीं और देखने लगा है। मायावती के कोर वोटर को भी लगता है कि बहन जी को किसी गठबंधन में शामिल होकर अपनी ताकत बढ़ानी चाहिए और उसके बाद ही वो दलितों का भला कर सकती हैं।
उनको लगता है कि मायावती अगर विपक्षी गठबंधन का हिस्सा नहीं बन पाती हैं, अलग अकेले चुनाव लड़ती हैं, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को फ़ाइदा पहुंचाने वाला ही क़दम साबित होने वाला है. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में जिस तरह से अभी बीजेपी मज़बूत स्थिति में है, मायावती के अलग रुख़ से समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और आरएलडी के गठजोड़ का असर प्रदेश में काफ़ी कम हो जाता है. प्रदेश के सियासी समीकरणों के लिहाज़ से इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है.
एक समय में पूर्वांचल से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक दबदबा रखने वाली बसपा के सामने 2024 के लिए ऐसे चेहरों की भी कमी है, जिनके सहारे पार्टी की सीट बढ़ने की संभावना दिखती हो. बसपा की राजनीति के इस तरह से दयनीय स्थिति में पहुँचने के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं.
मायावती को छोड़ दिया जाए, तो बड़े-बड़े नेता लंबे समय तक टिककर बसपा में नहीं रहे हैं. बसपा की राजनीति को इतने साल हो गये, लेकिन इसके बावजूद मायावती के अलावा दो-चार नाम नहीं कोई बता सकता है, जो शुरू से इस पार्टी में रहा हो और लगातार रहकर अभी भी बना हुआ हो. मायावती ने अपने रवैये की वज्ह से पार्टी में अपने बाद सेकेंड कमान तैयार करने पर कभी ध्यान नहीं दिया.
आज स्थिति यह हो गयी है कि 67 साल की मायावती के बाद बसपा में कौन दूसरे नंबर का नेता है, इसको लेकर भी कुछ ज़्यादा नहीं कहा जा सकता है. इसीलिए दलितों वोटरों का रुझान अब भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद की ओर जा रहा है। आज़ाद भी खुलकर कहने लगे हैं कि बहन जी अब दलितों के लिए संघर्ष करने की स्थिति में नहीं है। दलितों की अगुवाई अब हम करेंगे। 2024 में नगीना सीट से गठबंधन प्रत्याशी बन रहे आजाद जल्द ही अपनी ताकत का अदाजा भी हो जाएगा।

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