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‘Hola Mohalla’ in Punjabi- सिख समाज कैसे मनाता है होली, सिख कौम की वीरता से जुड़े ‘होला-मोहल्ला’ की पूरी पड़ताल

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Posted by Admin | 13 March, 2025

WhatsApp-Image-2025-03-13-at-4.29.46-PM ‘Hola Mohalla’ in Punjabi- सिख समाज कैसे मनाता है होली, सिख कौम की वीरता से जुड़े ‘होला-मोहल्ला’ की पूरी पड़ताल

Holi in Punjab- होली का त्यौहार ( Festival of Holi) आते ही हिन्दुस्तान ( India) में हर तरफ मस्ती की बहार छा जाती है। देश के हर हिस्से में होली को जबरदस्त उल्लास ( joyful ) के साथ मनाया जाता है। हिन्दुस्तान में पंजाबियों की अलग ही शान मानी जाती है, इसलिए उनके होली मनाने का तरीका भी थोड़ा अलग है। पंजाब में होली के मौके पर होला-मोहल्ला की धूम मचती है। ये कोई आम त्यौहार नहीं है, बल्कि सिख कौम की वीरता, साहस और संस्कृति का ऐसा संगम है, जो दिल को छू जाता है। सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसे 1701 में शुरू किया था, और तब से लेकर आज तक ये पर्व पंजाब की शान बना हुआ है। आज यंगिस्तान ( youngistan.co.in) आपको होला मोहल्ला के बारे में डिटेल में पूरी जानकारी देगा।
दुनिया भर में बसे हुए पंजाबी सिख भाई-बहन होली के त्यौहार के साथ ही होला मोहल्ला भी मनाते हैं। होला-मोहल्ला- ये नाम दो शब्दों से बना है—‘होला’ मतलब होली से जुड़ा हुआ, और ‘मोहल्ला’ यानी एक संगठित जुलूस या सैन्य टोली। इसका मतलब हुआ कि ये ऐसा पर्व है, जिसमें रंगों के साथ-साथ वीरता और शौर्य का भी तड़का लगता है। ये त्यौहार सिखों के लिए बहुत खास है। इसमें न रंगों की बौछार ही होती है, न मिठाइयों की बहार ही खत्म होती है, बल्कि इसमें गतका, तलवारबाजी, घुड़सवारी, और ढेर सारे करतब देखने को मिलते हैं। ये सिख कौम की बहादुरी और उनकी सांस्कृतिक धरोहर को दिखाता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसे शुरू किया था ताकि सिख नौजवान अपने अंदर की ताकत और हिम्मत को जागृत करें।

History of Hola Mohalla

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जान लेते हैं कि होला मोहल्ला की शुरुआत कब और कैसे हुई। बात 1701 की है, जब गुरु गोबिंद सिंह जी आनंदपुर साहिब में थे। उस वक्त मुगल शासकों का ज़ुल्म चरम पर था। गुरु जी चाहते थे कि सिख कौम न सिर्फ अपने धर्म की रक्षा करे, बल्कि हर मुसीबत से लड़ने के लिए तैयार रहे। उन्होंने सोचा, होली का मौका है—क्यों न इसे मस्ती के साथ-साथ वीरता से जोड़ा जाए?
तो बस, गुरु जी ने होला-मोहल्ला की शुरुआत की। उन्होंने सिखों को बुलाया और कहा, “ਆਓ ਸਿੰਘੋ, ਹੁਣ ਰੰਗਾਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ, ਸ਼ੌਰਿਆ ਨਾਲ ਹੋਲੀ ਖੇਡੀਏ।” यानी आओ सिखों, अब रंगों से नहीं, शौर्य से होली खेलें। इसके लिए उन्होंने आनंदपुर साहिब के पास होलगढ़ किला बनवाया। वहाँ सिख योद्धाओं को दो टोलियों में बाँटा गया और नकली युद्ध का आयोजन किया गया। इसमें तलवारबाजी, नेज़ाबाजी, और घुड़सवारी के करतब हुए। गुरु जी खुद इन खेलों को देखते थे और बहादुरों को इनाम देते थे।
ये सिर्फ मज़े के लिए नहीं था। इसका मकसद था सिखों को सैन्य ताकत का अभ्यास करवाना, उन्हें आत्मरक्षा सिखाना, और मुगलों के खिलाफ लड़ने का हौसला पैदा करना। उस वक्त गुरु जी का मशहूर कथन था—“चिड़ियाँ ते मैं बाज लड़ाऊँ, सवा लाख से एक लड़ाऊँ, तभी गोबिंद सिंह नाम कहाऊँ।” यानी वो हर सिख को इतना मज़बूत बनाना चाहते थे कि वो अकेला ही दुश्मनों से टक्कर ले सके।

What Happens in Hola Mohalla?

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अब बात करते हैं कि इस त्यौहार में क्या-क्या होता हैं। ये कोई साधारण पर्व नहीं है—यहाँ हर तरफ जोश, जुनून, और सिखों का ਖਾਲਸਾਈ ਰੰਗ (खालसाई रंग) दिखता है।
गतका और मार्शल आर्ट ( Gataka and Martial Arts)
सबसे पहले तो गतका का ज़िक्र करना बनता है। ये सिखों की पारंपरिक युद्ध कला है। निहंग सिख (सिख योद्धा) इसमें तलवारें, भाले, और लाठियाँ लेकर करतब दिखाते हैं। एक-दूसरे पर नकली हमले करते हैं, लेकिन ऐसा लगता है जैसे सचमुच का युद्ध हो रहा हो। देखने वाले दाँतों तले उंगलियाँ दबा लेते हैं।
घुड़सवारी और करतब
फिर आता है घोड़ों का खेल। निहंग सिख तेज़ रफ्तार घोड़ों पर सवार होकर तलवारें लहराते हैं, टेंट पेगिंग करते हैं, और कभी-कभी दो घोड़ों पर खड़े होकर करतब दिखाते हैं। ये देखकर लगता है—“ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਜੀ ਦੀ ਫੌਜ ਵਾਕਈ ਲਾਜਵਾਬ ਹੈ।” (वाहिगुरु की फौज वाकई लाजवाब है।)
नगर कीर्तन
ये एक भव्य जुलूस होता है। पंज प्यारे (पांच प्रिय सिख) इसकी अगुवाई करते हैं। निशान साहिब (सिखों का झंडा) हाथ में लिए निहंग सिख ढोल-नगाड़ों की ताल पर चलते हैं। लोग “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” के जयकारे लगाते हैं। ये जुलूस आनंदपुर साहिब के गुरुद्वारों से शुरू होकर चरण गंगा नदी के किनारे खत्म होता है।
रंगों की होली
भले ही ये वीरता का पर्व है, लेकिन होली का मज़ा भी बरकरार रहता है। लोग एक-दूसरे पर गुलाल और फूलों की पंखुड़ियाँ डालते हैं। निहंग सिख अपने नीले-नारंगी कपड़ों में रंगों से सराबोर नज़र आते हैं।
लंगर और सेवा
सिख धर्म में लंगर का बहुत बड़ा रोल है। होला-मोहल्ला में विशाल लंगर लगता है। हलवा, पूरी, सब्ज़ी, खीर—सब कुछ मुफ्त बँटता है। संगत बैठकर खाती है, और निहंग सिख सेवा में जुटे रहते हैं। ये सिखों की “ਸੇਵਾ ਭਾਵਨਾ” (सेवा भावना) को दिखाता है।
कीर्तन और कविताएँ
सुबह-सुबह गुरुद्वारों में गुरबानी कीर्तन होता है। कवि लोग अपनी रचनाएँ सुनाते हैं, जो सिख इतिहास और वीरता की कहानियाँ बयान करती हैं। ये सुनकर जोश दोगुना हो जाता है।
भले ही ये वीरता का पर्व है, लेकिन होली का मज़ा भी बरकरार रहता है। लोग एक-दूसरे पर गुलाल और फूलों की पंखुड़ियाँ डालते हैं। निहंग सिख अपने नीले-नारंगी कपड़ों में रंगों से सराबोर नज़र आते हैं। सिख धर्म में लंगर का बहुत बड़ा रोल है। होला-मोहल्ला में विशाल लंगर लगता है। हलवा, पूरी, सब्ज़ी, खीर—सब कुछ मुफ्त बँटता है। संगत बैठकर खाती है, और निहंग सिख सेवा में जुटे रहते हैं। ये सिख समाज की सेवा भावना को दिखाता है। सुबह-सुबह गुरुद्वारों में गुरबानी कीर्तन होता है। कवि लोग अपनी रचनाएँ सुनाते हैं, जो सिख इतिहास और वीरता की कहानियाँ बयान करती हैं। ये सुनकर जोश दोगुना हो जाता है।

Where is Hola Mohalla Celebrated?

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होला-मोहल्ला का सबसे बड़ा जलसा तो आनंदपुर साहिब में होता है, जो पंजाब के रूपनगर ज़िले में है। यहाँ तख्त श्री केशगढ़ साहिब से शुरू होकर पूरा इलाका खालसाई रंग में रंग जाता है। कीरतपुर साहिब में तीन दिन तक होला-मोहल्ला मनाया जाता है। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के आसपास भी लोग इस मौके पर जमा होते हैं और शौर्य प्रदर्शन करते हैं।
पंजाब से बाहर लखमऊ के गुरुद्वारा श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी में भी इसकी धूम रहेगी। दिल्ली के गुरुद्वारों में भी ये पर्व पूरे उल्लास के मनाया जाता है। बात करें विदेशों की तो कनाडा, अमेरिका, और इंग्लैंड जैसे देशों में बसे सिख भी इसे धूमधाम से मनाते हैं। वहाँ गुरुद्वारों में गतका और कीर्तन के प्रोग्राम होते हैं। तो देखा जाए, ये पर्व अब सिर्फ पंजाब तक सीमित नहीं रहा। सिखों की वीरता की गूँज पूरी दुनिया में सुनाई देती है।

Growing Awareness About Hola Mohalla

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पिछले कुछ सालों में होला-मोहल्ला को लेकर लोगों में जागरूकता काफ़ी बढ़ी है। पहले ये सिर्फ सिख भाइयों तक सीमित था, लेकिन अब हर कोई इसके बारे में जानना चाहता है। फेसबुक, इंस्टाग्राम, और यू-ट्यब पर लोग होला-मोहल्ला की तस्वीरें और वीडियो शेयर करते हैं। निहंग सिखों के करतब देखकर लोग हैरान रह जाते हैं और इसे वायरल कर देते हैं। न्यूज़ चैनल हर साल आनंदपुर साहिब से लाइव कवरेज दिखाते हैं। इससे बाहर के लोग भी इसकी भव्यता को देख पाते हैं। पंजाब आने वाले सैलानी अब होला-मोहल्ला को अपने ट्रिप का हिस्सा बनाते हैं। विदेशी टूरिस्ट भी इसे देखने आते हैं और सिख संस्कृति को करीब से जानते हैं। आजकल स्कूलों में भी बच्चों को इसके इतिहास के बारे में बताया जाता है, जिससे नई पीढ़ी अपनी धरोहर से जुड़ती है। ये सब देखकर लगता है कि होला-मोहल्ला अब सिर्फ एक त्यौहार नहीं, बल्कि सिख कौम की पहचान और गर्व का प्रतीक बन गया है।

Punjab Government’s Stance on Hola Mohalla

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पंजाब सरकार भी इस पर्व को लेकर बहुत सजग है। वो इसे न सिर्फ धार्मिक आयोजन मानती है, बल्कि इसे पंजाब की सांस्कृतिक धरोहर के तौर पर प्रमोट भी करती है। हर साल सरकार आनंदपुर साहिब और कीरतपुर साहिब में बड़े पैमाने पर तैयारियाँ करती है। इस साल आनंदपुर साहिब में 22 पार्किंग स्थल, शटल बसें, और ई-रिक्शा का इंतज़ाम किया गया है। पीने का पानी, शौचालय, और लाइट की पूरी व्यवस्था की गई है। पुलिस और प्रशासन मिलकर सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम किए गए हैं। वॉच टावर, चेकपॉइंट, और कंट्रोल रूम बनाए गए हैं, ताकि संगत को कोई दिक्कत न हो।
सरकार इसे टूरिज़्म का हिस्सा बनाकर देश-विदेश में पंजाब की शान बढ़ाती है। होला-मोहल्ला को राष्ट्रीय उत्सव का दर्जा भी मिला हुआ है।
तो होला-मोहल्ला सिर्फ एक त्यौहार नहीं है—ये सिखों की वीरता, उनकी संस्कृति, और उनके जोश का उत्सव है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसे शुरू करके एक मिसाल कायम की कि मस्ती और बहादुरी साथ-साथ चल सकती है। चाहे आनंदपुर साहिब की गलियाँ हों या विदेशों के गुरुद्वारे, हर जगह ये पर्व “ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਜੀ ਕਾ ਖਾਲਸਾ, ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਜੀ ਕੀ ਫਤਿਹ” के नारे से गूँजता है।
पंजाब सरकार का समर्थन और लोगों की बढ़ती जागरूकता इसे और भी खास बना रही है। तो होली के मौके पर अगर आप पंजाब में हैं तो होला-मोहल्ला की धूम ज़रूर देखें। ये ऐसा अनुभव होगा जो आपके दिल में हमेशा के लिए बस जाएगा। यंगिस्तान पर आपको ये जानकारी कैसी लगी, इसके बारे में अपनी राय कॉमेन्ट बॉक्स में ज़रूर रखें।

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